Toran dwar bhagera, kekri dola maru ki pream katha

तोरणद्वार बघेरा

राजस्थान  में आज भी जीवंत है, ढोला मारू की प्रेम कहानी   

राजस्थान की धरती शौर्य के साथ प्रेम और बलिदान की गाथाओं से भरी है। राजस्थान की वीर प्रसूता धरा में ऐसी अनेकों कहानियां बिखरी पड़ी है। प्रेमी युगल ढोला मारू के प्रेम और समर्पण की कथा भी एक ऐसी ही कथा है। जो गाहे बगाहे लोगों की जुबान पर आती रहती है। ढोला मारू की कहानी राजस्थानी लोक गीतों और किंवदंतियों के साथ आज भी युवाओं के हृदय को तरंगित कर देती है। एक किंवंदती के अनुसार ढोला मारू का विवाह केकड़ी जिले के बघेरा गांव में हुआ था । जहां आज भी पत्थर (पाषाण) का तोरण द्वार उनके प्रेम का मूकसाक्षी है। केकड़ी उपखण्ड में स्थित बघेरा ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथाओं को समेटे हुए है।

ग्यारह सौ साल पुराना है तो रणद्वार बताया जाता है कि रेतीले धोरों में उपजे प्रेम को ढोला मारू ने बघेरा में ही परिणय के अटूट बंधन के रंग में रंगा था । बघेरा गांव के मध्य में स्थित पाषाण का तो रणद्वार उनके प्रेम के साक्षी के रूप में विद्यमान है। करीब ग्यारह सौ साल पुराने इस तो रणद्वार पर अजंता -एलोरा की तरह ढोला मारू सहित कई तरह की मूर्तियां उकेरी गई है। तोरणद्वार का पत्थर भी नजदी की गांव घटियाली का काम में लिया गया था । बताते हैं कि तोरण मारने की रस्म व विवाह बंधन में बंधने के समय भोजन के दौरान 72 मण (2280 कि ग्रा ) लाल मिर्च का उपयोग हुआ था । इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि ढोला मारू की शादी में कितने लोगों ने भोजन किया होगा । औसतन एक किग्रा सब्जी में 20 ग्राम लाल मिर्च डाली जाती है।

बघेरा का ऐतिहासिक तोरणद्वार

बघेरा का ऐतिहासिक तोरणद्वार प्रशासनीक लापरवाही की अनदेखी से जर्जर हो रहा है। उल्लेखनीय है कि राजस्थानी लोक नायक अमर प्रेमी ढोला-मारवणी का बाल विवाह बघेरा में हुआ था उसकी स्मृति में यहां सुन्दर कलात्मक द्वार थाम्ब,चंवरियां वर्तमान में स्थित है। कला के दृष्टिकोण से यह तोरणद्वार दसवीं शताब्दी के चौहान काल का एक अदभुत सुन्दर नमूना है। मगर पुरातात्वीक विभाग की अनदेखी प्रशासनीक लापरवाही से यह पुरामहत्व का तोरणद्वार दिनों दिन क्षतिग्रस्त अवस्था में पहुंचता जा रहा है।

कौन सुनेगा, किसको सुनाएं इसीलिए अपने दर्द पर आंसू बहा रहा हूं आएगा कोई महापुरुष उसी का इंतजार कर रहा हूं । कुछ यही पंक्तियां बघेरा के ऐतिहासिक तोरण द्वार के लिए चरितार्थ हो रही है ।ऐतिहासिक ग्राम बघेरा
और आसपास के क्षेत्रों के हर खास और आम व्यक्ति, इतिहास विषय में रुचि रखने वाले इतिहासकारो, जनप्रतिनिधियो,इतिहास प्रेमी बंधुओ, और देश का भविष्य और गांव बघेरा के वर्तमान के युवाओ …

मैं बघेरा का तोरण द्वार बोल रहा हू अपनी व्यथा सुना रहा हूँ । मैं तोरण द्वार जो करीब 1100 वर्षो से कड़ी धूप, सर्दी, गर्मी, बरसात की मार झेलता हुआ अपना अस्तित्व बनाए रखा हूं। लेकिन लोगों ने मेरा वजूद मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी न जाने कितने लोगों ने मेरे बदन पर कुल्हड़िया चलाकर उनकी धार पेनी की न जाने कितनों ने मेरी अपेक्षा की मुझे नजरअंदाज किया ।अब मैं जर्जर हो गया हूं, मेरा बुढापा आ गया है तो छोड़ दिया है मुझे मेरे हाल पर…।

जर्जर होता मैं बघेरा का तोरण द्वार आज आपसे मार्मिक अपील करता हूं कि मेरी इस दुर्दशा पर ध्यान दो, मेरी सार संभा ल लो ..मेरे इतिहास को सहेज लो…मुझे बचा लो, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब मेरी कमर टूट जाएगी और में गिरने को मजबूर हो जाऊंगा फिर ना इतिहास बचेगा और न गांव का गौरव रहेगा । याद रखिये केवल इतिहास की कहानियो में ही मेरा वजूद रहेगा जिसके गुणगान आप आने वाली पीढ़ियों के सामने करोगे कि कभी इस बघेरा की पावन धरती पर एक तोरण द्वार हुआ करता था।

कि आखिर मेरा (तोरण द्वार का) संबंध बघेरा की इस पवन धरती से करीब 1100 वर्षों से रहा है.. मैं भी आपका अपना हूं, आपका व मेरा इतिहास एक रहा है, आपने और हमने मिलकर इस पावन धरती पर अपने जीवन को गुजारा है आखिर कैसे मुझे आप लोग यूं भुला सकते हो? कैसे मेरी उपेक्षा कर सकते हो? कैसे मुझे अना थ छोड़ सकते हो? क्या? आपकी मार्मिकता इतनी मर चुकी है?क्या आप इतने संवेदनहीन हो चुके हैं ? कभी पत्थरों से कभी बल्लियों से मेरा शरीर जख्मी करते हो । कभी लोग पूजा करते थे मुझे पर आज में गंदगी में सांस लेने को मजबूर हूँ, स्वानो की शरण स्थली बन गया हूँ।
आपका और मेरा(तोरण द्वार का) संबंध कई पीढ़ियों से रहा है तो आखिर कैसे आप लोग मुझे अनाथ छोड़ कर यू दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर रहे हो? अभी भी समय है मुझे बचालो ,अपने गांव के इतिहास को बचा लो, अपने गांव के गौरव को बचा लो मेरा संरक्षण करके मेरी मरम्मत तो जरा तुम करा दो । बड़े-बड़े विशालकाय स्मारक ,मंदि,र भवन, समारोह करने के साथ-साथ मुझ (तोरण द्वार) जैसे ऐतिहासिक तोरण द्वार, मंदिर ,स्मारक, ऐतिहासिक गौरव को भुलाये जा रहे हो। इतिहास के प्रति तुम लोगों का कोई कर्तव्य नहीं है जी हमारी उपेक्षा कर रहे हो। 
अब मुझे वराह सागर के किनारे की शीतलता औऱ भगवान वराह की शरण की जरूरत है तभी मेरी आत्मा को शीतलता और सुकून मिलेगा मेरा खोया हुआ गौरव मुझे वापस मिलेगा मुझे लोगों की चोट नहीं लोगों का प्रेम और विश्वास मिलेगा। 
 जर्जर हो रहे मेरी( तोरण द्वार की)हालात पर दर्द अपना सुना रहा हु .. मेरी मार्मिक अपील सुनकर अगर गांव के नागरिकों और जनप्रतिनिधियों,यों युवाओं का मन भी नहीं पसीजता है तो ….आपसे किस बात की अपेक्षा करे..। चाहकर भी तुम लोग इतिहास से सम्बद्ध नही तोड़ सकेंगे। एक दूसरे पर जिम्मेदारियों का बहाना बनाकर तुम हमे यूं न बिसरायो। यह इतिहास कभी माफ नही करेगा। मुझे आज भी इंतजार है उस भागीरथ व दानवीर की जो मेरी इस दशा की सुध ले सके मेरे संरक्षण के लिए भागीरथी प्रयास कर सकते। “आ लोट के आजा मेरे हमदर्द तुझे मेरा दर्द पुकारता है,आँसू बहा रहा हूँ अपनी हालत पर मुझे बचाने आजा तुम्हे जख्मी तोरण द्वार पुकारता है।


ढोला-मारू : राजस्थानी लोक-कथा

Dhola-Maru : Lok-Katha (Rajasthan)


राजस्थान की लोक कथाओं में बहुत सी प्रेम कथाएँ प्रचलित है पर इन सबमे ढोला मारू प्रेम गाथा विशेष लोकप्रिय रही है इस गाथा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आठवीं सदी की इस घटना का नायक ढोला राजस्थान में आज भी एक-प्रेमी नायक के रूप में स्मरण किया जाता है और प्रत्येक पति-पत्नी की सुन्दर जोड़ी को ढोला-मारू की उपमा दी जाती है । यही नहीं आज भी लोक गीतों में स्त्रियाँ अपने प्रियतम को ढोला के नाम से ही संबोधित करती है, ढोला शब्द पति शब्द का प्रयायवाची ही बन चूका है ।राजस्थान की ग्रामीण स्त्रियाँ आज भी विभिन्न मौकों पर ढोला-मारू के गीत बड़े चाव से गाती है ।

ढोला नरवर के राजा नल का पुत्र था जिसे इतिहास में ढोला व साल्हकुमार के नाम से जाना जाता है, ढोला का विवाह बालपने में जांगलू देश (बीकानेर) के पूंगल नामक ठिकाने के स्वामी पंवार राजा पिंगल की पुत्री मारवणी के साथ हुआ था । उस वक्त ढोला तीन वर्ष का मारवणी मात्र डेढ़ वर्ष की थी । इसीलिए शादी के बाद मारवणी को ढोला के साथ नरवर नहीं भेजा गया । बड़े होने पर ढोला की एक और शादी मालवणी के साथ हो गयी । बचपन में हुई शादी के बारे को ढोला भी लगभग भूल चूका था । उधर जब मारवणी प्रोढ़ हुई तो मां बाप ने उसे ले जाने के लिए ढोला को नरवर कई सन्देश भेजे । ढोला की दूसरी रानी मालवणी को ढोला की पहली शादी का पता चल गया था उसे यह भी पता चल गया था कि मारवणी जैसी बेहद खुबसूरत राजकुमारी कोई और नहीं सो उसने डाह व ईर्ष्या के चलते राजा पिंगल द्वारा भेजा कोई भी सन्देश ढोला तक पहुँचने ही नहीं दिया वह सन्देश वाहको को ढोला तक पहुँचने से पहले ही मरवा डालती थी ।

उधर मारवणी के अंकुरित यौवन ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया । एक दिन उसे स्वप्न में अपने प्रियतम ढोला के दर्शन हुए उसके बाद तो वह ढोला के वियोग में जलती रही उसे न खाने में रूचि रही न किसी और कार्य में । उसकी हालत देख उसकी मां ने राजा पिंगल से ढोला को फिर से सन्देश भेजने का आग्रह किया, इस बार राजा पिंगल ने सोचा सन्देश वाहक को तो मालवणी मरवा डालती है इसीलिए इस बार क्यों न किसी चतुर ढोली को नरवर भेजा जाय जो गाने के बहाने ढोला तक सन्देश पहुंचा उसे मारवणी के साथ हुई उसकी शादी की याद दिला दे ।

जब ढोली नरवर के लिए रवाना हो रहा था तब मारवणी ने उसे अपने पास बुलाकर मारू राग में दोहे बनाकर दिए और समझाया कि कैसे ढोला के सम्मुख जाकर गाकर सुनाना है । ढोली (गायक) ने मारवणी को वचन दिया कि वह जीता रहा तो ढोला को जरुर लेकर आएगा और मर गया तो वहीँ का होकर रह जायेगा ।


चतुर ढोली याचक बनकर किसी तरह नरवर में ढोला के महल तक पहुँचने में कामयाब हो गया और रात होते ही उसने ऊँची आवाज में गाना शुरू किया । उस रात बादल छा रहे थे, अँधेरी रात में बिजलियाँ चमक रही थीझीणी-झीणी पड़ती वर्षा की फुहारों के शांत वातावरण में ढोली ने मल्हार राग में गाना शुरू किया ऐसे सुहाने मौसम में ढोली की मल्हार राग का मधुर संगीत ढोला के कानों में गूंजने लगा और ढोला फन उठाये नाग की भांति राग पर झुमने लगा तब ढोली ने साफ़ शब्दों में गाया -
"ढोला नरवर सेरियाँ, धण पूंगल गळीयांह ।"

गीत में पूंगल व मारवणी का नाम सुनते ही ढोला चौंका और उसे बालपने में हुई शादी की याद ताजा हो आई । ढोली ने तो मल्हार व मारू राग में मारवणी के रूप का वर्णन ऐसे किया जैसे पुस्तक खोलकर सामने कर दी हो । उसे सुनकर ढोला तड़फ उठा ।

दाढ़ी (ढोली) पूरी रात गाता रहा । सुबह ढोला ने उसे बुलाकर पूछा तो उसने पूंगल से लाया मारवणी का पूरा संदेशा सुनाते हुए बताया कि कैसे मारवणी उसके वियोग में जल रही है ।

आखिर ढोला ने मारवणी को लाने हेतु पूंगल जाने का निश्चय किया पर मालवणी ने उसे रोक दिया ढोला ने कई बहाने बनाये पर मालवणी उसे किसी तरह रोक देती । पर एक दिन ढोला एक बहुत तेज चलने वाले ऊंट पर सवार होकर मारवणी को लेने चल ही दिया और पूंगल पहुँच गया । मारवणी ढोला से मिलकर ख़ुशी से झूम उठी । दोनों ने पूंगल में कई दिन बिताये और एक दिन ढोला ने मारूवणी को अपने साथ ऊंट पर बिठा नरवर जाने के लिए राजा पिंगल से विदा ली । कहते है रास्ते में रेगिस्तान में मारूवणी को सांप ने काट खाया पर शिव पार्वती ने आकर मारूवणी को जीवन दान दे दिया । आगे बढ़ने पर ढोला उमर-सुमरा के षड्यंत्र में फंस गया, उमर-सुमरा ढोला को घात से मार कर मारूवणी को हासिल करना चाहता था सो वह उसके रास्ते में जाजम बिछा महफ़िल जमाकर बैठ गया । ढोला जब उधर से गुजरा तो उमर ने उससे मनुहार की और ढोला को रोक लिया । ढोला ने मारूवणी को ऊंट पर बैठे रहने दिया और खुद उमर के साथ अमल की मनुहार लेने बैठ गया । दाढ़ी गा रहा था और ढोला उमर अफीम की मनुहार ले रहे थे उमर सुमरा के षड्यंत्र का ज्ञान दाढ़ी (ढोली) की पत्नी को था वह भी पूंगल की बेटी थी सो उसने चुपके से इस षड्यंत्र के बारे में मारूवणी को बता दिया ।

मारूवणी ने ऊंट के एड मारी, ऊंट भागने लगा तो उसे रोकने के लिए ढोला दौड़ा, पास आते ही मारूवणी ने कहा - धोखा है जल्दी ऊंट पर चढो और ढोला उछलकर ऊंट पर चढ़ा गया । उमर-सुमरा ने घोड़े पर बैठ पीछा किया पर ढोला का वह काला ऊंट उसके कहाँ हाथ लगने वाला था । ढोला मारूवणी को लेकर नरवर पहुँच गया और उमर-सुमरा हाथ मलता रह गया ।

नरवर पहुंचकर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारुवणी व मालवणी के साथ आनंद से रहने लगा ।

इसी ढोला का पुत्र लक्ष्मण हुआ, लक्ष्मण का भानु और भानु का पुत्र परम प्रतापी बज्र्दामा हुआ जिसने अपने वंश का खोया राज्य ग्वालियर पुन: जीतकर कछवाह राज्यलक्ष्मी का उद्धार किया । आगे चलकर इसी वंश का एक राजकुमार दुल्हेराय राजस्थान आया जिसने मांची, भांडारेज, खोह, झोटवाड़ा आदि के मीणों को मारकर अपना राज्य स्थापित किया उसके बाद उसके पुत्र काकिलदेव ने मीणों को परास्त कर आमेर पर अपना राज्य स्थापित किया जो देश की आजादी तक उसके वंशजों के पास रहा । यही नहीं इसके वंशजों में स्व.भैरोंसिंहजी शेखावत इस देश के उपराष्ट्रपति बने व इसी वंश के श्री देवीसिंह शेखावत की धर्म-पत्नी श्रीमती प्रतिभापाटिल आज इस देश की महामहिम राष्ट्रपति है ।

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ढोला को रिझाने के लिए दाढ़ी (ढोली) द्वारा गाये कुछ दोहे -

आखडिया डंबर भई, नयण गमाया रोय ।
क्यूँ साजण परदेस में, रह्या बिंडाणा होय ।।

आँखे लाल हो गयी है रो रो कर नयन गँवा दिए है, साजन परदेस में क्यों पराया हो गया है ।

दुज्जण बयण न सांभरी, मना न वीसारेह ।
कूंझां लालबचाह ज्यूँ, खिण खिण चीतारेह ।।

बुरे लोगों की बातों में आकर उसको (मारूवणी को) मन से मत निकालो । कुरजां पक्षी के लाल बच्चों की तरह वह क्षण क्षण आपको याद करती है । आंसुओं से भीगा चीर निचोड़ते निचोड़ते उसकी हथेलियों में छाले पड़ गए है ।

जे थूं साहिबा न आवियो, साँवण पहली तीज ।
बीजळ तणे झबूकडै, मूंध मरेसी खीज ।।

यदि आप सावन की तीज के पहले नहीं गए तो वह मुग्धा बिजली की चमक देखते ही खीजकर मर जाएगी । आपकी मारूवण के रूप का बखान नहीं हो सकता । पूर्व जन्म के बहुत पुण्य करने वालों को ही ऐसी स्त्री मिलती है ।

नमणी, ख़मणी, बहुगुणी, सुकोमळी सुकच्छ ।
गोरी गंगा नीर ज्यूँ मन गरवी तन अच्छ ।।

बहुत से गुणों वाली, क्षमशील, नम्र व कोमल है गंगा के पानी जैसी गौरी हैउसका मन और तन श्रेष्ठ है ।

गति गयंद, जंघ केळ ग्रभ, केहर जिमी कटि लंक ।
हीर डसण विप्रभ अधर, मरवण भ्रकुटी मयंक ।।

हाथी जैसी चाल, हीरों जैसे दांत, मूंग सरीखे होठ है । आपकी मारवणी की सिंहों जैसी कमर है, चंद्रमा जैसी भोएं है ।

आदीता हूँ ऊजलो मारूणी मुख ब्रण ।
झीणां कपड़ा पैरणां, ज्यों झांकीई सोब्रण ।।

मारवणी का मुंह सूर्य से भी उजला है, झीणे कपड़ों में से शरीर यों चमकता है मानो स्वर्ण झाँक रहा हो ।









2 Comments

  1. बहुत बड़िया, और ऐसे ही रोचक जानकारी दिया करो

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  2. बघेरा में इसका पता नही था अब देखने जाएंगे

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